'राहुल युग' में आएंगे कांग्रेस के 'अच्छे दिन?'


कांग्रेस में राहुल युग शुरु हो चुका है सो बदलती कांग्रेस के भविष्य को लेकर भी सवाल उठने लाजिमी है। ऐसे दौर में जब जनवरी 2013 में राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस अब तक 24 विधानसभा चुनाव हार चुकी है। ऐसे वक्त में जबकि कांग्रेस के पास कर्नाटक छोड़कर किसी बड़े राज्य की सत्ता नहीं बची है। राहुल का अध्यक्ष बनना कई मायनों में बेहद उलटफेर भरा फैसला साबित होने वाला है। 1885 में कांग्रेस पार्टी की स्थापना होने के बाद अब तक 43 साल तक पार्टी के अध्यक्ष पद पर नेहरू गांधी परिवार का वर्चस्व रहा है। 1928 में मोतीलाल नेहरू से शुरु हुआ सिलसिला अब भी जारी है। ये इत्तेफाक ही है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के जितने भी अध्यक्ष हुए वो सभी 'एक्सिडेंटली' ही हुए। 1984 में राजीव गांधी अध्यक्ष तब बने जब इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी। पीवी नरसिम्हा राव भी अध्यक्ष तब बने जब राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस को संभालने के लिए मजबूत हाथों की जरूरत थी और कई पुराने नेताओं ने अध्यक्ष पद लेने से इनकार कर दिया था। नरसिम्हा राव के बाद सीताराम केसरी भी विकल्पहीनता की स्थिति में ही अध्यक्ष बने। और सीताराम केसरी की महत्वाकांक्षाओं ने उन्हें भी ज्यादा दिन टिकने नहीं दिया और डूबती कांग्रेस को सहारा दिया सोनिया गांधी ने। दिल्ली में 11 अकबर रोड की इन हलचलों को देखते हुए यमुना का काफी पानी बह चुका है।
अब राहुल की बारी है। अतीत में देखें तो कांग्रेस के जितने भी अध्यक्ष रहे उनमें से ज्यादातर की योग्यता और क्षमता का सही आंकलन तभी हुआ जब उन्होंने बतौर कांग्रेस अध्यक्ष काम करना शुरु किया और अपने रणनीतिक तौर तरीकों से पार्टी को मजबूती दी। 1964 से 1967 तक कांग्रेस के अध्यक्ष पद को संभालने वाले के कामराज इसका बड़ा उदाहरण हैं। दक्षिण की सियासत से अचानक दिल्ली के गलियारों में बड़ा चेहरा बनकर उभरे के कामराज ने उस दौर में कांग्रेस का नेतृत्व किया जिस दौर में इंदिरा गांधी एक बार कांग्रेस के अध्यक्ष पद को संभाल चुकी थी लेकिन उस दौर में भी कांग्रेस के बड़े नेताओं ने हिम्मत दिखाई और दिल्ली के लिए एक अनजान चेहरे के कामराज पर भरोसा जताया। जिसमें वो बेहद कामयाब रहे। और 1962 में भारत-चीन युद्ध में मिली हार के प्रभाव को खत्म कर कांग्रेस पार्टी को मजबूती देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। राजनीतिक इतिहास की किताबों में के कामराज को लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारें बनवाने का श्रेय भी दिया है मगर सबसे ज्यादा चर्चा उस 'कामराज प्लान" की होती है जिसके तहत उन्होने कांग्रेस के संगठन को दुरुस्त करने के लिए बुजुर्ग नेताओँ को जिम्मेदारी से हटने और नए नेताओं को जिम्मेदारी देने की पहल की थी। जिसका नतीजा है कि कांग्रेस इतनी मजबूत हो गई कि उसका विकल्प तलाशना मुश्किल हो गया। और जो विकल्प आए भी आपतकाल के आसपास वो टिक नहीं पाएं।
साल 2007 से कांग्रेस के महासचिव, साल 2013 से कांग्रेस के उपाध्यक्ष और अब कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी के लिए फिलहाल साठ के दशक की चुनौतियों से बड़ी चुनौती सामने खड़ी है। क्योंकि जो फॉर्मूला के कामराज ने बनाया है उस पर सतही तौर पर ही सही बीजेपी ने खुद को व्यवस्थित कर लिया है। बीजेपी में 75 की उम्र में सन्यास लेने का चलन दिख रहा है। मार्गदर्शक मंडल के नाम पर बुजुर्ग नेताओं को किनारे बैठाने का चलन दिख रहा है और सबसे बड़ी बात ये कि कामराज साहब ने जो माहौल अपने दम पर कांग्रेस के लिए बनाया था उस तरह का माहौल बीजेपी के लिए आज बन चुका है। ऐसे में राहुल गांधी के लिए लोहे से लोहा काटने की एक ऐसी चुनौती है जिस पर अगर वो जस के तस तरीके से आगे बढ़ेंगे तो नकल करने का आरोप लगेगा और अगर नहीं बढ़ेंगे तो नया करने के लिए उनके पास कुछ और नहीं बचेगा।
दरअसल राहुल गांधी की सबसे बड़ी समस्या वो खुद हैं। जिनके लिए करीब एक दशक से सियासी माहौल ज्यादा बेहतर नहीं रहा है। उपर से अपने राजनीतिक तरीके बार बार बदलकर वो खुद ही अपने समर्थकों को भ्रमित कर देते हैं, विरोधियों की तो बात ही छोड़िए। जिससे संदेश जाता है कि राहुल गांधी अपने विजन को लेकर बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं है। जबकि सच ये है कि कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी के किए गए प्रयोगों में से कई प्रयोग बीजेपी ने अपनाए और कामयाबी हासिल की मगर राहुल के खुद के फॉर्मूले उनके लिए ही आत्मघाती साबित हो गए। मसलन 2007 में राहुल गांधी ने जिस तरह से ब्लॉक लेवल से लेकर जिला और प्रदेश लेवल तक पदाधिकारियों का चुनाव कराने का फॉर्मूला रखा उसने काफी हलचल मचाई थी मगर इस प्रयोग को कांग्रेस आगे बढ़ाने में नाकाम रही। वहीं बीजेपी में मोदी युग के उभार के साथ ही जिला और ब्लॉक लेवल का वही फॉर्मूला बीजेपी के रणनीतिकारों ने आजमाया बस योजना की शकल बदल दी। राहुल ने जिस फॉर्मूले को संगठन के चुनावों के लिए लागू करने की कोशिश की बीजेपी ने उसे नियमित चुनावों का जरिया बना लिया। लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने  जिस तरह का माइक्रोमैनेजमेंट किया था वो दरअसल कहीं ना कहीं कांग्रेस में चर्चा लेवल तक सिमट गए फॉर्मूले से ही प्रेरित था।। गांव और बूथ लेवल की रणनीति को सीधे केन्द्रीय रणनीतिकारों की निगरानी से जोड़ने का काम बीजेपी ने किया जिसका फायदा वो अब तक उठा रही है
सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह रही कि कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी के फॉर्मूले बार बार फेल हुए। महासचिव बनने के बाद यूथ और छात्र संगठनों में तो उपाध्यक्ष बनने के बाद मुख्य संगठऩ में। तो इसकी वजह बड़ी वजह राहुल के वो रणनीतिकार हैं जिनपर उन्हें आंख मूंदकर भरोसा है। जो उन्हें कभी कलावती के घर की रोटी खिलाते हैं तो कभी जादू का खेल दिखाते हैं। कभी ऑर्डिनेंस फड़वा देते हैं तो कभी कुर्ते की जेब में छेद कर देते हैं। राहुल का हर मूव खुद उनके लिए मुश्किल खड़ी करता है तो इसके सीधे जिम्मेदार कांग्रेस की वही पीढ़ी है जो चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुई है और जिसके लिए राजनीति का मतलब पैतृक व्यवसाय जैसा है। जिन्होने राहुल के राजनीतिक व्यक्तित्व को एक इवेंट सरीखा बना दिया है। इवेंट खत्म, ड्यूटी खत्म।।
रणनीतिकारों की सलाह और खुद का विश्लेषण ये दोनों चीजें जरूरी हैं। क्योंकि किसी एक चीज की अधिकता सारा खेल खराब कर देती है वो भी राजनीति में जहां पल पल आपका काउंटर करने को लोग तैयार बैठे हैं वो भी सोशल मीडिया के जमाने में तो और। खुद के विश्लेषण और अंदाजे से गलफल कहां तक पैदा होती है इसका एक बड़ा उदाहरण कांग्रेस के ही एक गैरगांधी अध्यक्ष सीताराम केसरी हैं जिन्होंने देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल की दो सरकारें सिर्फ इसलिए गिरा दी क्योंकि उनमें खुद प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जाग गई थी। सो बेसिरपैर के आरोपों के सहारे दो सरकारों की बलि ले ली ये बात खुद कांग्रेस के बड़े नेता रह चुके और पूर्व राष्ट्रपति रह चुके प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब द कोलेशन ईयर्स 1996-2012 में लिखी है। जिसका नतीजा रहा कि 6 साल तक कांग्रेस सत्ता से दूर रही थी। कुछ यही हाल राहुल गांधी के फैसलों से भी पड़ा है। क्योंकि राहुल ने पहले रणनीतिकारों की सुनी फिर अपने दिल की। दिलचस्प ये है कि दोनों बातें उन्होंने बारी बारी सुनी एक साथ नहीं। सो नतीजा सामने हैं। अब दागियों को बचाने वाला ऑर्डिनेंस फाड़ना राहुल के लिए छवि निर्मित करने का जरिया हो सकता है मगर उसका संदेश जो गया उसने विपक्षियों के आरोप ''रिमोट वाली सरकार'' पर मुहर लगा दी। यूपी में 27 साल यूपी बेहाल करते करते राहुल ने यूपी के लड़कों का दांव खेला, जो उलटा साबित हुआ। गुजरात में भी भरत सिंह सोलंकी, अर्जुन मोडवा़डिया, शक्ति सिंह गोहिल जैसों को मंच की शोभा बनाकर राहुल ने हार्दिक, जिग्नेश अल्पेश जैसे आंदोलन से निकले युना नेताओं को साधा है। ये प्रयोग कितना कामयाब होगा ये अभी देखना बाकी है। हां चुनावी माहौल में राहुल के जनेऊ वाली चर्चा याद रखिएगा ये असर जरूर दिखाएगी।
लब्बोलुआब ये है कि कांग्रेस में राहुल गांधी के अलावा कोई विकल्प फिलहाल नहीं है। वो अध्यक्ष बन रहे हैं अच्छी बात है। तब भी जब उनके खुद के रिश्तेदार शहजाद पूनावाला ने ऐन चुनाव के मौके पर उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। अब सिर्फ टीवी पर दिखने वाले चेहरे शहजाद पूनावाला की आपत्तियों का कुछ होने वाला नहीं ये बात सभी जानते हैं। मगर इससे राहुल की नई चुनौतियों का इशारा जरूर मिलता है। ये चुनौती है कांग्रेस के उस भविष्य की जो राहुल युग के साथ शुरु होने वाली है। जहां दारोमदार अब सिर्फ राहुल पर ही होगा। सीधे निशाने पर वो पहले से थे अब और ज्यादा होंगे। ऐसे में नई कांग्रेस के लिए राहुल को कामराज का विजन, सीताराम केसरी की महत्वाकांक्षा, इंदिरा गांधी की प्रतिबद्धता, राजीव गांधी का आकर्षण, नेहरू सरीखी स्वीकार्यता सबकुछ अपनाना होगा। जो तभी मुमकिन है जब राहुल गांधी सिर्फ आक्रामक ही नहीं रणनीतिक समझ भी विकसित करें, सुने सबकी मगर करें वही जो उन्हें ठीक लगे। क्योंकि अध्यक्ष के तौर पर राहुल पहले से ज्यादा प्रयोग कर सकते हैं हां प्रयोगों में निरंतरता और प्रयोगों पर अति विश्वास जरूरी है। प्रयोगों को अधर में छोड़कर नए प्रयोग करने की आदत से बचना होगा राहुल को। वरना गांधी परिवार के करिश्मा दिवास्वप्न बनकर रह जाएगा

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