अपनों से ''लुट गई'' कांग्रेस?


बरसों पहले एक गोविन्दा की फिल्म आई थी। जिसमें कादर खान और जानी लीवर भी थे। फिल्म में कादर खान एक कंपनी के मालिक और जानी लीवर उनके मैनेजर बने थे। इन दोनों का संवाद बेहद मजेदार था। जब भी कादर खान जानी लीवर से पूछते कि तुम मेरी ओर हो या फिर उसकी(गोविन्दा) ओर, तो जानी लीवर उंगली को दूसरी तरफ करके बोलते कि आपकी ओर। एक सीन ऐसा भी था जब जानी लीवर को सफाई देनी पड़ी और जानी ने उंगली दूसरी ओर करने पर सफाई दी कि वो दिल से अपने मालिक यानी कादर खान के साथ हैं
ये तो रही फिल्म की बात, ये बात इसलिए याद आई क्योंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी में पिछले कुछ बरसों से इसी फिल्म की तर्ज पर खेल चल रहा है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल की सुप्रीम कोर्ट में दी गई दलील है जो उन्होंने बतौर सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील सुप्रीम कोर्ट में दी। सिब्बल साहब ने अदालत ने कह डाला कि अयोध्या मामले की सुनवाई 2019 से पहले नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसका फायदा सत्ताधारी पार्टी उठा सकती है। अब समझ में नहीं आता कि कपिल सिब्बल साहब जैसे काबिल वकील औऱ रणनीति के माहिर नेता अपनी इस दलील का मकसद औऱ मतलब नहीं समझ पाए। दलीलों को धार देने की कोशिश में सिब्बल साहब ने जो किया है उसने एक बार फिर कांग्रेस की बनी बनाई रणनीति में सुराख कर दिया है। बाकी 18 दिसंबर को तय होगा कि इसका नफा या नुकसान क्या हुआ?
दरअसल कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या यही है कि सियासी मैच में खेलते खेलते उसका विकेट ऐसे वक्त गिरता है जब उसकी बिल्कुल भी ना तो उम्मीद होती है ना ही जरूरत होती है और खराब गेंदबाज़ी होती है। ज्यादा वक्त नहीं हुए यूपी का उदाहरण बीते हुए। कांग्रेस ने यूपी में कैंपेन जोर शोर से शुरु किया। शीला दीक्षित को अपना चेहरा बनाया, 27 साल यूपी बेहाल यात्रा निकाली और राहुल गांधी ने लगभग 80 प्रतिशत यूपी बस से नपवा दिया। लेकिन जैसे ही चुनाव करीब आया अखिलेश यादव से गठबंधन करा दिया। वो अखिलेश यादव, जो अपनी ही पार्टी के भीतर उठापटक से जूझ रहे थे और मुलायम-शिवपाल से गहरे से जुड़ा कैडर उनसे नाराज था। लेकिन ऐन मौके पर समाजवादी पार्टी पर हमला बोलते बोलते राहुल गांधी अचानक अखिलेश से दोस्ती कर बैठे और नतीजा सामने है। राहुल गांधी ये भूल गए कि भले ही राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी स्थाई नहीं होती लेकिन जल्दी जल्दी दुश्मन या दोस्त बदलना भी राजनीतिक सेहत के लिए हानिकारक होता है।
अब आते हैं उपर वाली लाइन पर यानी फिल्म से शुरु हुई चर्चा पर। दरअसल फिल्म की चर्चा के पीछे मेरा मकसद ये ध्यान दिलाना है कि राहुल गांधी की मौजूदा छवि की वजह क्या है। राहुल गांधी की मेहनत पर उनके विरोधियों को भी शक नहीं है लेकिन क्या वजह है कि राहुल की इस मेहनत के बदले उन्हें सिर्फ मजाक का पात्र बना दिया जाता है। तो असल में ये पूरा माहौल गढ़ने में जितनी बड़ी भूमिका विरोधियों की है उससे ज्यादा इसका मौका देने का श्रेय सिर्फ राहुल के सहयोगियों और कांग्रेस के नेताओं को जाता है जिन्होंने राहुल गांधी की छवि को गढ़ने से ज्यादा मढ़ने का काम किया है। राहुल के सलाहकार हों या फिर मार्गदर्शक, सबकी ओर से राहुल को दी गई सलाह कितनी कारगर रही है ये बताने की जरूरत नहीं है। मसलन दागी नेताओं पर लाए गए अध्यादेश की प्रतिया फाड़ना, मंच पर पर्चा फाड़ना, फटे हुए कुर्ते की जेब दिखाना और कुर्ते की आस्तीन चढ़ाकर भाषण देना। जाहिर है ये सबकुछ राहुल गांधी अपनी मर्जी से नहीं करते हैं बल्कि उनसे करवाया जाता है। और इसके जरिए एक खास जनता से जुड़े नेता की छवि गढ़ने की कोशिश होती है।
बहरहाल चर्चा राहुल की कभी और होगी फिलहाल तो समझना जरूरी है कि आखिर चुनावी माहौल में अक्सर कांग्रेस की फजीहत क्यों और कैसे होती है। और क्या कांग्रेस बीजेपी को देखकर भी कुछ नहीं सीखती। चुनावी मौसम में एक बयान या एक गलत रणनीति के क्या मायने हो सकते हैं इसका बड़ा उदाहरण बिहार का चुनाव है जहां आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर दिए एक बयान ने बीजेपी की मिट्टी पलीद कर दी थी। बीजेपी सफाई देती रह गई कि वो आरक्षण के साथ है मगर धारणा यही बनी कि बीजेपी आरक्षण के खिलाफ है जिसे लालू नीतीश की जोड़ी भुना ले गई
अब  ऐसे में कपिल सिब्बल की दलील पर कांग्रेस के नेता चाहे जो दलील दें। सच तो ये है कि जिस सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से सिब्बल ने 2019 के चुनाव की दलीलें देकर सुनवाई आगे टालने की अपील की वो सुन्नी वक्फ बोर्ड चुनाव नहीं लड़ने वाला। ऐसे में सिब्बल की दलील एक वकील की दलील है या फिर एक कांग्रेस के नेता की दलील इसका फर्क साबित करते करते 9 दिसंबर भी  बीत जाएगा और 14 दिसंबर भी जब गुजरात में वोटिंग होनी है, और इस मुद्दे को लेकर बीजेपी किस तरह आक्रामक रणनीति अख्तियार करने वाली है इसका नजारा एबीपी न्यूज की डिबेट में दिख गया जब अक्सर व्यंगात्मक शैली में बात करने वाले बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा एबीपी न्यूज की एंकर नेहा पंत से सिर्फ इसलिए भिड़ गए क्योंकि नेहा ने ''गुजरात के चुनाव में भगवान राम की एंट्री'' बोल दिया था। असल में संबित पात्रा का भड़कना भी उनकी पार्टी लाइन ही है, जिसके जरिए बीजेपी चुनावी समर के आखिरी दिनों में उग्र हिन्दुत्व के चेहरे को एक बार फिर स्थापित करना चाहती है। साफ है पटेल, दलित, आदिवासी और उनके अधिकारों के इर्द गिर्द घूम रही गुजरात की सियासत में ये बड़ा यू टर्न है। जहां बीजेपी सिब्बल के बयान के आधार पर कांग्रेस औऱ राहुल गांधी को मंदिर विरोधी बताने से नहीं चूकेगी। खुद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस से मंदिर पर उसका स्टैंड पूछकर इसकी शुरुआत कर दी है। जिसे बीजेपी के तमाम प्रवक्ता आगे बढ़ा रहे हैं और ये नया विमर्श सिर्फ टीवी चैनलों तक ही नहीं बल्कि जनता के बीच भी पहुंचेगा। जिसका सीधा असर कांग्रेस के अभियान पर पड़ना तय है।
कहते हैं जब वक्त खराब होता है तो किस्मत भी साथ नहीं देती, यूपी निकाय चुनावों में कांग्रेस औऱ बीजेपी के एक पार्षद के बीच मुकाबला टाई होने पर टॉस के जरिए फैसला किया गया था और नतीजा बीजेपी उम्मीदवार के पक्ष में गया था। अब गुजरात इससे अलहदा भले हो लेकिन सिब्बल के बयान पर बचाव करना कांग्रेस के आसान नहीं है। क्योंकि अयोध्या से गुजरात का भी गहरा रिश्ता है, गोधरा की ट्रेन में जिन्दा जले वो यात्री अयोध्या से ही लौटे थे और गुजरात के दंगों में अयोध्या का मसाला भी भरपूर था। सो 18 दिसंबर तक इंतजार करिए। नतीजा जो भी होगा उसमें सिब्बल के बयान की छाप जरूर दिखेगी।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बीजेपी की जीत के पीछे विपक्ष की 'कड़ी मेहनत'?

गुजरात का 'जनेऊ' बनाम गोरखपुर का 'जनेऊ'

ऐसा तो नहीं था गुजरात !