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गैरों पे करम, अपनों पे सितमःदादा ये क्या कर डाला

जिससे राहत की उम्मीदें थीं उसी ने अपना पिटारा खोल दर्द बांटने की कवायद शुरु कर दी....किचेन का बजट गड़बड़ाता नज़र आया और आम आदमी की थालियां पहले से महंगी हो गईं.....सैलरी मिलने से पहले से चुकाया जाने वाला टैक्स पहले से ही रुला रहा था...लेकिन राहत के नाम पर आयकर छूट में महज 20 हज़ार की बढ़ोतरी....अभी पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ेंगी ये सोच कर कलेजा बैठा जा रहा था....घर के कामकाज से थकी-मादी पत्नी को कभी-कभार बाहर ले जाकर खिलाने के सिलसिले में भी अड़चनें आती दिखीं....अब होटलों में बतौर सर्विस टैक्स ज्यादा रकम जो चुकानी पड़ेगी.....टेलीफोन के बिलों में बढ़ोतरी होगी सो अलग.....फिक्र को धुंए में उड़ाना भी पहले से महंगा हो चला.....आम आदमी का दिल बैठा जा रहा था...जहां ग़रीबों की जेबें ढीली कर...कॉरपोरेट्स के खजाने भरने की साजिशें चल रही हो...उस देश का भगवान ही मालिक है....लेकिन तभी क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर ने देशभर के दुखियारों का दुख मिटा डाला...बजट से मुरझाए आम आदमी के चेहरे पर तब मुस्कान तैरने लगी जब सचिन ने अपना सौंवा शतक लगा दिया.....वित्तमंत्री के डंडे की चोट का असर जाता रहा........ले ले

आग से खेल रहे दिग्विजय सिंह !

देश इन दिनों ज्वालामुखी के मुंह पर बैठा हुआ है...दरअसल चुनावों के ठीक पहले धर्म को लेकर जिस तरह की सियासत शुरु हुई है उसका अंजाम सोचकर ही डर लग रहा है....मुस्लिम आरक्षण से शुरु हुई बयानबाजी अब चार साल पुराने बाटला एन्काउन्टर पर जाकर टिक गई है....एक ओर दिग्विजय सिंह हैं जो कि बार बार एन्काउन्टर पर सवाल उठाते रहे हैं..वहीं दूसरी ओर केन्द्र सरकार के नुमाइंदे इसे सही बता रहे हैं... हालात कुछ बड़े विचित्र और उलझाउ बन पड़े हैं....आजमगढ़ में राहुल गांधी के विरोध के बाद दिग्विजय सिंह ने जिस तरह से इस मुद्दे को तूल दिया उससे खुद उन्ही की पार्टी सांसत में आ गई है....क्योंकि बाटला एन्काउन्टर जिस वक्त हुआ उस वक्त ना केवल दिल्ली में बल्कि केन्द्र में भी उन्ही की पार्टी की सरकार थी...ऐसे में दिग्गी राजा के इस बयान के बाद सवाल सबसे पहले सरकार पर ही उठेंगे....सवाल ये नहीं कि बटला एन्काउन्टर गलत था या सही बल्कि सवाल ये है कि इस बहाने जो राजनीति हो रही है वो काफी खतरनाक है....इस बात का अंदाजा या तो दिग्विजय सिंह को नहीं है या फिर अगर है भी तो वो आग से खेलने की कोशिश कर रहे हैं....खुद अपनी

चौराहे पर कौन अन्ना या टीम अन्ना ?

पिछले साल 16 अगस्त का दिन.....हाथों में झंडे सर पर अन्ना टोपी....दिल्ली के रामलीला मैदान में दस दिनों तक मेले का माहौल....मैदान में जितने लोग भी मौजूद थे या फिर जो भी आ जा रहे थे...सबकी जुबान पर बस एक ही स्वर अन्ना अऩ्ना....जितनी भीड़ उसमें नब्बे प्रतिशत संख्या युवाओं की....देश जूनून में लिपटा था...क्या गांव क्या शहर क्या कस्बे सब के सब भ्रष्टाचार के खिलाफ महायुद्ध में अपना योगदान देने के लिए चले आ रहे थे....एक ऐसा दृश्य जिसे टीवी पर देखने से ज्यादा सभी लोग महसूस कर रहे थे....जो भी रामलीला मैदान या देश के किसी भी कोने में भी इस आन्दोलन का हिस्सा बना उसे ऐसा ही लगता था कि बस अन्ना जी यहां से अनशन जब तोड़ेंगे तब तक भ्रष्टाचार का अन्त हो जाएगा..नहीं भी होगा तो जनलोकपाल के रुप में एक ऐसा चाबुक कानून बन जाएगा जिसके डर से सभी भ्रष्टाचारी मैदान छोड़ भाग जाएंगे.... सवाल ये नहीं कि ये आन्दोलन कितना सफल और कितना बड़ा था...सवाल सबसे बड़ा ये है कि इस आन्दोलन के साथ लोगों की भावनाएं जुड़ गई थीं....लेकिन फिर दूसरे ही सीन में टीम अन्ना के अहम सदस्य प्रशान्त भ