बीजेपी की जीत के पीछे विपक्ष की 'कड़ी मेहनत'?


यूपी के निकाय चुनावों ने एक बार फिर ये साबित कर दिया है कि हाल फिलहाल बीजेपी के सांगठनिक कौशल और तैयारी के आसपास भी कोई नहीं है। 16 नगर निगमों में से 14 पर कब्जा करके बीजेपी ने ना केवल बड़े शहरों में अपनी मजबूत पकड़ दिखाई है, बल्कि छोटे शहरों और कस्बों में भी अपनी दमदार धमक पेश की है। 198 नगर पालिकाओं में से 67 बीजेपी ने जीती तो नगर पंचायत की 438 सीटों में से बीजेपी के हिस्से 100 आईं। ये तब हुआ जब नगर पालिका की 43 सीटें निर्दलीयों के कब्जे में गईं, तो नगर पंचायत की 181 सीटों पर निर्दलीय विजयी घोषित हुए। यानी यूपी की कस्बाई आबादी ने अगर बीजेपी को नहीं चुना तो समाजवादी  पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस के मुकाबले उन्हें निर्दलीय ज्यादा अच्छे लगे।
सवाल उठता है कि इन नतीजों का राजनीतिक संदेश क्या है? क्या वाकई विपक्ष की पार्टियां इस संदेश को गंभीरता से समझने की कोशिश कर रही हैं या फिर इन नतीजों पर भी कुतर्क पेश कर इन्हें झुठलाने की कोशिश शुरु हो गई है। मौजूदा हालात जो बनते दिख रहे हैं उसमें दूसरी बात ज्यादा सच साबित होती दिख रही है। क्योंकि बीजेपी की प्रचंड जीत के बाद से ही सोशल मीडिया पर ऐसी टिप्पणियों की बाढ़ आ गई जिसमें योगी के वार्ड की हार, केशव प्रसाद मौर्य के वार्ड की हार की चर्चा ज्यादा थी बजाय इसके कि स्वस्थ लोकतांत्रिक परिपाटी का पालन करते हुए कम से कम जीतने वाले को तो शुभकामनाएं दी जाएं। जाहिर  ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि फिर विपक्षी पार्टियों की प्रवृति का फायदा किसे मिलेगा। क्या वास्तव में अपनी हार को कुबूल ना करके विपक्ष जो ढकोसला कर रहा है वो उसकी सियासत के लिए फायदेमंद होगा या नुकसानदेह? तो असल में इसका सीधा जवाब कोई समझना नहीं चाहता और अगर समझता भी है तो उस पर चिंतन नहीं करना चाहता। क्योंकि कन्नौज में अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव के संसदीय क्षेत्र की सारी सीटें समाजवादी पार्टी हार गई। अमेठी जिले की सारी सीटें कांग्रेस ना केवल हारी बल्कि तीसरे चौथे नंबर पर रही। ये बात योगी के वार्ड में हार और केशव मौर्य के वार्ड में हार से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण और चिंतनीय है। क्योंकि योगी को जो साबित करना था उन्होंने कर दिया। गिर कर उठने की पहली चुनौती विपक्ष के सामने थी जिसमें वो एक बार फिर  फेल रहा
बीते तीन साढ़े तीन साल के चुनावी नतीजों को देखिए। हर चुनाव में विपक्ष अपनी हार पर मंथन करने के बजाय उसमें बहाने तलाशता था। लोकसभा चुनाव के बाद ईवीएम का सवाल उठाया गया था जो यूपी चुनाव के नतीजों के बाद और ज्यादा गहरा हो गया। इस बीच ईवीएम से दर्जनों चुनाव हुए। चुनाव आयोग ने ईवीएम को लेकर खुला चैलेंज भी दिया लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इस चैलेंज से सीधे भिड़ने से बचता रहा। हालांकि बयानबाजी में कोई कमी कभी नहीं हुई। लेकिन इस दौरान लोग भूल गए कि गुजरात के पंचायत चुनाव, महाराष्ट्र के नगरीय निकाय के चुनाव (नगर निगमों को छोड़कर) बैलेट पेपर से ही हुए जिसमें बीजेपी ने 60 प्रतिशत से ज्यादा सीटें जीतीं। लेकिन बहस जारी रही। अब यूपी में कुल 653 निकायों में से 16 नगर निगमों को छोड़कर बाकी हर जगह बैलेट पेपर से चुनाव हुए, जिसमें भी बीजेपी ने बाजी मारी और सफलता का प्रतिशत 40 से 50 प्रतिशत के आसपास रहा जो अपने आप में एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। यानी इस चुनाव ने ये साफ कर दिया कि बीजेपी की स्वीकार्यता बनी हुई है। और पुरानी विजय तुक्का या ईवीएम का खेल नहीं है।
बहरहाल अब सवाल उठता है कि विपक्ष जो कह रहा है जो कर रहा है उससे विपक्ष को क्या हासिल होने वाला है। तो इसके लिए विपक्ष में शामिल पार्टियों का सांगठनिक ढांचा समझना होगा। बात यूपी की करें तो यूपी में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी में जमीन आसमान का अंतर है। ये अंतर है शिवपाल यादव का। शिवपाल जो कि मुलायम सिंह के साथ पार्टी की स्थापना से ही पार्टी को कंधों पर लेकर चले। उन्हें माइनस कर दिया गया। अखिलेश यादव के ज्यादातर साथी और सलाहकार 2001 से 2005-06 के दौरान लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्रनेता रहे नेता हैं। जिनका कौशल और उनकी राजनीतिक समझ लोहियावादी नहीं 90 प्रतिशत खरी सिर्फ अखिलेशवादी है। ये वो नेता हैं जिन्होंने कैंपस की सियासत की तर्ज पर प्रदेश की सियासत करने की सलाह अखिलेश यादव को दी है। और दुर्योग ये है कि अखिलेश यादव उसी राह पर चल निकले हैं। दूसरी हैं मायावती जिनकी कन्फ्यूजन ही उनकी दुश्मन बन गई। तिलक तराजू तलवार से शुरु की गई सियासत हाथी नहीं गणेश है तक पहुंची। उपर से कांशीराम के निधन के बाद मायावती ने अपने डंडे से पार्टी को हांका। नतीजतन एक एक कर वो महारथी दूर होते गए जिन्होंने अपने खून पसीने से बहुजनवाद की अवधारणा को सींचा था। मायावती की सबसे बड़ी परेशानी भी यही रही क्योंकि उन्होंने अपनी सियासत संघर्ष से शुरु की थी मगर एक दौर आते आते उनकी सियासत लखनऊ से दिल्ली के इर्द गिर्द ही सिमट गई। ऊंचे मंच पर ठसक के साथ बैठने और गले में नोटों की माला पहनकर दलित स्वाभिमान का थोथा प्रदर्शन करना एक वक्त तक तो ठीक रहा मगर जब मायावती के पार्टी के प्रमुख स्तम्भ ध्वस्त हुए तो मायावती खुद को उस जनता से सीधे जोड़ने में नाकाम रहीं जो उनका आधार थी। हालांकि इसके बाद भी मायावती का वोट प्रतिशत 19-20 प्रतिशत पर कायम रहा जो उनके कोर वोटबैंक की उनके प्रति प्रतिबद्धता को दिखाता है। यूपी चुनाव में करारी शिकस्त के बाद मायावती ने ईवीएम पर ठीकरा भले फोड़ा मगर कुछ महीनों बाद उन्होंने एक बार फिर पुराने अंदाज में पार्टी का संगठन दुरुस्त करने की कोशिश की जिसका नतीजा भी दिखा है कि आमतौर पर शहरी सियासत से दूर रहने वाली बीएसपी को अलीगढ़ और मेरठ के रुप में दो नगर निगमों पर जीत मिली।
रही बात कांग्रेस की तो कांग्रेस की दुर्गति की जिम्मेदार वो खुद है। जो अपने ढर्रे से आगे बढ़ना ही नहीं चाहती। नेतृत्व के अभाव की वजह से कांग्रेस पहले ही यूपी में हाशिए पर थी अब लगभग निपट ही गई है। इसके बाद भी ना तो उसे सुध है नए सिरे से खड़े होने की और ना ही संगठन की धार तेज करने की ताकि बीजेपी स्टाइल वाली सियासत को चुनौती दे सके।
बहरहाल एक बार फिर चुनाव हुआ है। निकाय का ही सही, मगर चुनाव तो चुनाव है। जिस चुनाव में साढ़े तीन करोड़ मतदाता यानी दुनिया के दर्जन भर छोटे देशों की आबादी भर के मतदाता वोट करें उसे छोटा चुनाव मानना भूल होगी। साथ ही ये भी कि ये चुनाव पहली बार सभासद से लेकर मेयर तक पार्टी सिंबल पर लड़े गए। इस चुनाव के बाद भी विपक्ष का रवैया ये बता रहा है कि वो ना तो सबक सीखने को तैयार है ना ही प्रोफेशनल तरीके से पार्टी चलाने को तैयार है। लोहिया के शब्दों में कहें तो ''पर्चा, खर्चा, चर्चा'' से लडे जाने वाले चुनाव अब इससे कहीं ज्यादा आगे बढ़ चुके हैं। जिसे समझना जरूरी है और अपनी कमजोरियों का ठीकरा कभी ईवीएम तो कभी चुनाव आयोग पर फोड़ने के बजाय अपने भीतर झांकना जरूरी है विपक्ष के लिए कि आखिर चूक कहां हो रही है? क्योंकि बीजेपी अब मतदाता सूची के पन्नों तक के लिए रणनीति बनाती है, और यहां विपक्ष है कि लखनऊ दिल्ली के गलियारों से गरिया गरिया कर ही काम चला लेता है। विपक्ष को अगर वाकई बीजेपी को चुनौती देनी है तो उसे इससे उपर उठना होगा और बीजेपी को बीजेपी के स्टाइल में ही टक्कर देनी होगी वरना आगे के चुनाव भी ऐसे ही एकतरफा होते रहेंगे। गुजरात हिमाचल के नतीजे आने हैं वहां भी विपक्ष को कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है ये मेरी भविष्यवाणी नहीं एक आंकलन भर है जो गलत भी हो सकता है लेकिन विपक्ष का जो ढर्रा है वो मेरे आकलन के पक्ष में अब तक दिख रहा है ठीक वैसे ही जैसे विपक्ष की गालियां और उनकी सतही रणनीति हर बार बीजेपी को फायदा पहुंचा रही है

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