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ऐसा तो नहीं था गुजरात !

रोटी के बदले मारपीट, रोजगार के बदले धमकी, ऐसा तो नहीं था गुजरात!... सच में ऐसा नहीं था गुजरात....प्रवासियों के लिए जन्नत था गुजरात....गुजराती बसे विदेश में और बिहारी बसे उनके प्रदेश में...मगर अचानक ये आग किसने लगाई।  गुजरात से आने वाली सभी ट्रेनें फुल हैं, और इन ट्रेनों से वापसी करने वाले मायूस और डरे हुए हैं। ये जानते हुए कि वापस अपने घर आकर रोटी के लाले पड़ जाएंगे, मगर जान बची रहेगी तो कमा भी लेंगे...खा भी लेंगे... आरा का रहने वाला रोहित अब वापस घर आ गया है, इसी साल गुजरात गया था, 10 हजार की नौकरी भी थी। मगर अचानक सबकुछ खत्म हो गया, चार दिन से घर का चूल्हा ठंडा है। परिवार का गुजारा कैसे चलेगा...कुछ नहीं पता। ये कहानी अकेले रोहित की नहीं...इस जैसे अनगिनत युवकों की है जो रोटी की तलाश में गुजरात गए थे। उस गुजरात में जिसका गुणगान ये पीढ़ियों से सुनते आए थे। गांधी जी के जमाने से आज तक...इन्हें गुजरात भी अपना सा लगता था...लगे भी क्यों ना, आखिर गुजरात वाले गांधी जी जब बिहार आए तभी पूरे देश के हुए थे। बचपन में पढ़ाया गया ये संस्कार और जरुरतें बिहार के युवाओं को रोजी रोजगार की तलाश में गुज

घुसपैठियों से ममता को मोहब्बत क्यों है?

देश में एनआरसी के बहाने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक नई बहस छेड़ दी है या यूं कहें कि असम के बहाने उन्हें 2019 में विपक्ष के सबसे बड़े चेहरे के तौर पर खुद को प्रचारित करने का आसान मौका मिल गया है, वरना कोलकाता से कम ही निकलने वाली ममता एनआरसी के मुद्दे पर दो दिन दिल्ली में टिकी रहीं। जाहिर है जो ममता बनर्जी को जानते हैं उन्हें पता है कि ममता बिना जरुरत के दिल्ली क्या कोलकाता से बाहर भी ना जाएं। लेकिन असम में एनआरसी के मसले ने ममता का बरसों पुराना ख्वाब दोबारा ज़िन्दा कर दिया है। हालांकि ममता बनर्जी का ये कदम कोरी राजनीति से प्रेरित है जिसके जरिए वो खुद को विपक्ष और उदारवादी राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा साबित करने में जुट गईं हैं। मगर ममता बनर्जी की ये सियासत कई मायनों में बेहद खतरनाक है खासकर उनके इस बयान के बाद कि अवैध घुसपैठियों को बाहर भेजने से गृहयुद्ध और खूनखराबा शुरु हो जाएगा। असल में किसी भी नेता का बयान कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण होता है। जैसा कि हमने फिल्मों में खूब देखा कि नेता समर्थकों से अगर शांति की अपील करता है तो इसका मतलब ये होता है कि वो उन्हें अशां

बोफोर्स से टूजी तकः वीपी सिंह की 'राह' पर प्रधानमंत्री मोदी ?

आरुषि हत्याकांड, जेसिकालाल हत्याकांड जैसे अपराध के मामलों में कातिल कौन है, इसका पता आज तक नहीं चला। कहीं सबूत कम पड़े, कहीं गवाह, कहीं दलीलें कम पड़ीं, तो कहीं पुलिस की शुरुआती गलतियां भारी पड़ गई। ये असल में कुछ हाईप्रोफाइल केस हैं जो दुनिया के सामने आए, इन पर शोर शराबा हुआ और फिर नतीजा कुछ नहीं निकला। मगर सच ये है कि आज जेसिकालाल भी नहीं है, आरुषि भी नहीं है। जिन्दा और आजाद हैं, तो वो हत्यारे जिनका शातिर दिमाग, कानून ,पुलिस, अदालत सबको चकमा दे गया। और धीरे धीरे इनकी चर्चाएं हाशिए पर चली गईं। अब एक बार फिर देश में कुछ ऐसी ही चर्चा शुरु हो चुकी है। मगर इस दफे मसला हत्या के अपराध से नहीं आर्थिक अपराध से जुड़ा हुआ है। मगर सस्पेंस, थ्रिलर, उलटफेर, साजिश, सबका अंश है इस टूजी घोटाले में। देश में टूजी स्पेक्ट्रम का आवंटन 2001 की कीमत पर 2008 में कर दिया जाता है, मगर सबूतों के अभाव में अदालत को मानना पड़ता है कि कोई घोटाला नहीं हुआ। सांख्यिकी विशेषज्ञों की बात छोड़िए एक सामान्य आदमी भी ये आसानी से अंदाजा लगा सकता है कि आखिर क्या मजबूरी रही कि सात साल पुराने रेट पर बेशकीमती स्पेक्ट्रम बेच

कांग्रेस की ''सबसे बड़ी दुश्मन'' खुद कांग्रेस है?

गुजरात में बीजेपी की जीत को आंकड़ों के जरिए झुठलाने की कोशिश करने वालों जरा आंकड़े ठीक तरीके से पढ़ने और समझने चाहिए। ये मेरा सुझाव है कांग्रेस के समर्थकों को और कांग्रेस पार्टी को भी, जो गुजरात में 61 सीटों से 77 सीटों तक पहुंचने को अपनी बड़ी उपलब्धि मान रहे हैं। और बीजेपी की लगातार छठी जीत को उसकी नैतिक हार बता रहे हैं। ये बहुत कुछ वैसे ही है जैसे रोहित शर्मा ने पहले श्रीलंका के खिलाफ 264 रन बनाकर जीत दिलाई और बाद में हालिया वन डे सीरिज में सिर्फ 208 रन ही बना पाए, कुतर्कियों को ये बात समझनी होगी कि आंकड़ों के खेल के सहारे अपनी कमजोर छिपाने की कोशिश आखिरकार उनके लिए ही घातक साबित होगी। क्योंकि लोकतंत्र में विपक्ष का रहना और मजबूती के साथ रहना बेहद जरूरी है। लेकिन ये मजबूती आएगी कहां से, जब करारी शिकस्त में भी जीत के बहाने तलाशे जा रहे हैं। इसके जरिए विपक्ष खुद को कमजोर कर रहा है और उलटे बीजेपी को ताकत दे रहा है सवाल उठता है कि क्या बीजेपी की जीत तभी ऐतिहासिक मानी जाएगी जब बीजेपी के आगे सभी दलों का तेल निकल जाए। जैसा कि लोकसभा में हुआ जैसा कि यूपी विधानसभा चुनाव में हुआ। जहां विपक्

खुदा से भगवान बदल लें !

चलो अबकी दफा एक काम कर लें तुम्हारे खुदा से अपना भगवान बदल लें पचीसों साल का नासूर दिल से दूर रख दें तुम तीरथ करो तो हम भी अजान कर लें सियासत का असर हो उससे पहले नफरत का जहर हो उससे पहले निशाना हर शहर हो उससे पहले तुम गुल बनो, हम गुलफाम बन लें चलो अबकी दफा एक काम कर लें तुम्हारे खुदा से भगवान बदल लें ये बाबर और खिलजी या हो हाफिज ये मेरा जनेऊ, तेरी टोपी के जानिब भले बातें हों मजहबी या खालिस सियासत के असर को खाक कर दें बड़ा दिल कर लो संग संग आह भर लें चलो अबकी दफा एक काम कर लें तुम्हारे खुदा से भगवान बदल लें ये मौका हमने ही पैदा किया है खुदी का जश्न भी ज्यादा किया है ये उंगली हमने ही पकड़ाई उन्हें है जिन्होंने खुला इसका सौदा किया है अभी सबकी खता को माफ कर दें मुस्तकबिल के लिए इंसाफ कर दें चलो अबकी दफा एक काम कर लें तुम्हारे खुदा से भगवान बदल लें

अपनों से ''लुट गई'' कांग्रेस?

बरसों पहले एक गोविन्दा की फिल्म आई थी। जिसमें कादर खान और जानी लीवर भी थे। फिल्म में कादर खान एक कंपनी के मालिक और जानी लीवर उनके मैनेजर बने थे। इन दोनों का संवाद बेहद मजेदार था। जब भी कादर खान जानी लीवर से पूछते कि तुम मेरी ओर हो या फिर उसकी(गोविन्दा) ओर, तो जानी लीवर उंगली को दूसरी तरफ करके बोलते कि आपकी ओर। एक सीन ऐसा भी था जब जानी लीवर को सफाई देनी पड़ी और जानी ने उंगली दूसरी ओर करने पर सफाई दी कि वो दिल से अपने मालिक यानी कादर खान के साथ हैं ये तो रही फिल्म की बात, ये बात इसलिए याद आई क्योंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी में पिछले कुछ बरसों से इसी फिल्म की तर्ज पर खेल चल रहा है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल की सुप्रीम कोर्ट में दी गई दलील है जो उन्होंने बतौर सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील सुप्रीम कोर्ट में दी। सिब्बल साहब ने अदालत ने कह डाला कि अयोध्या मामले की सुनवाई 2019 से पहले नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसका फायदा सत्ताधारी पार्टी उठा सकती है। अब समझ में नहीं आता कि कपिल सिब्बल साहब जैसे काबिल वकील औऱ रणनीति के माहिर नेता अपनी इस दलील का मकसद औऱ मतलब नहीं समझ पा

'राहुल युग' में आएंगे कांग्रेस के 'अच्छे दिन?'

कांग्रेस में राहुल युग शुरु हो चुका है सो बदलती कांग्रेस के भविष्य को लेकर भी सवाल उठने लाजिमी है। ऐसे दौर में जब जनवरी 2013 में राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस अब तक 24 विधानसभा चुनाव हार चुकी है। ऐसे वक्त में जबकि कांग्रेस के पास कर्नाटक छोड़कर किसी बड़े राज्य की सत्ता नहीं बची है। राहुल का अध्यक्ष बनना कई मायनों में बेहद उलटफेर भरा फैसला साबित होने वाला है। 1885 में कांग्रेस पार्टी की स्थापना होने के बाद अब तक 43 साल तक पार्टी के अध्यक्ष पद पर नेहरू गांधी परिवार का वर्चस्व रहा है। 1928 में मोतीलाल नेहरू से शुरु हुआ सिलसिला अब भी जारी है। ये इत्तेफाक ही है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के जितने भी अध्यक्ष हुए वो सभी 'एक्सिडेंटली' ही हुए। 1984 में राजीव गांधी अध्यक्ष तब बने जब इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी। पीवी नरसिम्हा राव भी अध्यक्ष तब बने जब राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस को संभालने के लिए मजबूत हाथों की जरूरत थी और कई पुराने नेताओं ने अध्यक्ष पद लेने से इनकार कर दिया था। नरसिम्हा राव के बाद सीताराम केसरी भी विकल्पहीनता की स्थिति में ही अध