कांग्रेस की ''सबसे बड़ी दुश्मन'' खुद कांग्रेस है?


गुजरात में बीजेपी की जीत को आंकड़ों के जरिए झुठलाने की कोशिश करने वालों जरा आंकड़े ठीक तरीके से पढ़ने और समझने चाहिए। ये मेरा सुझाव है कांग्रेस के समर्थकों को और कांग्रेस पार्टी को भी, जो गुजरात में 61 सीटों से 77 सीटों तक पहुंचने को अपनी बड़ी उपलब्धि मान रहे हैं। और बीजेपी की लगातार छठी जीत को उसकी नैतिक हार बता रहे हैं। ये बहुत कुछ वैसे ही है जैसे रोहित शर्मा ने पहले श्रीलंका के खिलाफ 264 रन बनाकर जीत दिलाई और बाद में हालिया वन डे सीरिज में सिर्फ 208 रन ही बना पाए, कुतर्कियों को ये बात समझनी होगी कि आंकड़ों के खेल के सहारे अपनी कमजोर छिपाने की कोशिश आखिरकार उनके लिए ही घातक साबित होगी। क्योंकि लोकतंत्र में विपक्ष का रहना और मजबूती के साथ रहना बेहद जरूरी है। लेकिन ये मजबूती आएगी कहां से, जब करारी शिकस्त में भी जीत के बहाने तलाशे जा रहे हैं। इसके जरिए विपक्ष खुद को कमजोर कर रहा है और उलटे बीजेपी को ताकत दे रहा है
सवाल उठता है कि क्या बीजेपी की जीत तभी ऐतिहासिक मानी जाएगी जब बीजेपी के आगे सभी दलों का तेल निकल जाए। जैसा कि लोकसभा में हुआ जैसा कि यूपी विधानसभा चुनाव में हुआ। जहां विपक्ष की संख्या उंगली पर गिनने वाली हो गई। ये किसी भी लिहाज से वाजिब नहीं खासकर लोकतंत्र के लिए। हद तो ये भी है कि जब बीजेपी के आगे विपक्ष बुरी तरह हारता है तो ईवीएम पर सवाल उठाए जाते हैं, और जब सम्मानजनक तरीके से हारता है तो नैतिक जीत मानकर विपक्षी आत्ममुग्ध हो जाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी पर गुजरात चुनाव के दौरान राजनीति करने और निचले स्तर तक प्रचार को ले जाने का आरोप लगाने वाले ये भूल जाते हैं कि ये मौका भी उन्हें विपक्ष ने ही दिया। राहुल गांधी दो दर्जन से ज्यादा मंदिरों के चक्कर काट आए। जाति के नाम पर पैदा हुए नेताओं को गोद में बैठा लिया। अपने जमीनी नेताओं को उनके हाल पर छोड़ दिया जिसकी वजह से मोडवाडिया, शक्तिसिंह गोहिल, सिद्धार्थ पटेल जैसे नेता चुनाव तक हार गए। और अब राहुल जी कहते हैं कि ये खोखली जीत है। अरे भाई अगर ये कांग्रेस की जीत है तो आपके वो जमीनी नेता जो बरसों से गुजरात में मोदी का मुकाबला कर रहे हैं वो चुनाव क्यों हारे? और वो नेता क्यों जीत गए जो जातिगत विभाजन कर सुर्खियों में आए थे। मोदी पर निचले स्तर की सियासत करने का आरोप लगाने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि गुजरात में पटेलों को आरक्षण देने का वादा कर राहुल गांधी ने भी जातिगत राजनीति ही खेली। जाहिर है जब एक नेता राजनीति करेगा तो दूसरा अपने हाथ पैर में तेल लगाकर घर में बैठेगा नहीं।
कांग्रेस आंकड़ों के जरिए ही अपनी खुशफहमी का प्रचार कर रही है। तो कांग्रेस को इन आंकड़ों पर भी गौर करना चाहिए। गुजरात के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बीच वोट शेयर का अंतर 8 प्रतिशत का है। बीजेपी को 49 प्रतिशत और कांग्रेस को 41 प्रतिशत वोट मिले हैं। पहले कांग्रेस की बात करते हैं। कांग्रेस को 41 प्रतिशत वोट शेयर मिलने के पीछे हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर का योगदान भी कम नहीं है। सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस में इतनी हिम्मत है कि वो खुलकर अपने इन जातिवादी साथियों को श्रेय दे सके? असल में कांग्रेस ऐसा कभी नहीं करेगी क्योंकि जैसे ही उसने ये करने की कोशिश की राहुल गांधी के करिश्मे के दावों को चोट लग जाएगी तो उलटे ये जातिवादी तिकड़ी भी बुरा मान जाएगी जिसका साइडइफेक्ट लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ जाएगा। इसलिए कांग्रेस ने ये मुद्दा ही छोड़ रखा है ना तो इस पर वो  बात कर रही है ना ही किसी भी प्रकार की टिप्पणी कर रही है। दूसरी बात कांग्रेस का वोट शेयर तीन प्रतिशत बढ़ा है जिसकी वजह से उसकी 16 सीटें  पिछली बार से ज्यादा आई हैं। जाहिर है ये 16 सीटें अकेले राहुल के बूते तो नहीं ही आई हैं। ये सच भी कांग्रेस के नेताओं को स्वीकार करना चाहिए। दूसरी बात 16 सीटों  पर कम अंतर से हारने का प्रचार करने वाली कांग्रेस को ये भी समझना चाहिए कि गुजरात में दो दर्जन से ज्यादा सीटें ऐसी हैं जहां बीजेपी 170 से लेकर 2500 तक के अंतर से हारी है, यानी हिसाब बराबर। वहीं बीजेपी को मिला 49 प्रतिशत का वोट शेयर ये बताता है कि जीएसटी, नोटबंदी समेत तमाम मुद्दों को लेकर जो माहौल बनाया गया वो बिल्कुल भी काम नहीं आया।
सवाल बड़ा ये है कि क्या कांग्रेस के नेताओं को ये हकीकत नहीं दिख रही, या फिर देखने की कोशिश नहीं की जा रही? तो इसका जवाब खुद कांग्रेस पार्टी के नेताओं के नए पुराने बयान दे रहे हैं। कांग्रेस के भीतर एक बड़ा धड़ा ऐसा है जो कांग्रेस में रहकर ही कांग्रेस की जमीन खोदने में जुटा है। इन लोगों का समूह ना केवल राहुल गांधी को गलत मशविरा देता है बल्कि शीर्ष स्तर पर इन लोगों ने ऐसा सिंडिकेट बना लिया है जिसे तोड़ पाना अब खुद राहुल गांधी के वश की बात नहीं। इन्हीं लोगों की सलाह ने राहुल गांधी की छवि अगंभीर बना दी है। और दुर्योग ये है कि राहुल गांधी भी ऐसे ही लोगों पर आंख मूंदकर यकीन करते हैं। इसकी तस्वीर तब दिखी जब राहुल गांधी अध्यक्ष बने और अध्यक्षीय भाषण में कोई भी ऐसी धारदार बात नहीं कर पाए जो उनके विजन को दिखाती, कांग्रेस के भविष्य निर्माण के सपने दिखाती। उपर से गुजरात चुनाव के नतीजे आने के तुरंत बाद राहुल गांधी का प्रतिक्रिया ना देना भी इसी सिंडिकेट की रणनीति का हिस्सा थी। जिसने राहुल को हार में भी जीत के दिवास्वप्न दिखाए और हार को ईमानदारी से कुबूल करने के  बजाय कुतर्क गढ़ने को विवश कर दिया।
मेरा निजी तौर पर मानना है कि कांग्रेस को सशक्त होना चाहिए और राहुल गांधी को एक असरदार नेता के तौर पर उभरना चाहिए, क्योंकि सशक्त विपक्ष के बिना सशक्त लोकतंत्र की कल्पना हो ही नहीं सकती। मगर खुद कांग्रेस के अंदर बैठे लोग ऐसा होने नहीं देंगे। क्योंकि वो ना तो बदलाव को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं ना ही कॉरपोरेट तरीके से पार्टी चलाने के पक्ष में हैं। ऐसे नेताओं के लिए गांधी परिवार सिर्फ एक ब्रांड भर है जिसका इस्तेमाल वो अपने हिसाब से करना चाहते हैं। ये बेहद दुखद है कि इंदिरा गांधी के जमाने की कांग्रेस, राजीव गांधी के जमाने की कांग्रेस अब बुरी तरह कन्फ्यूज हो चुकी है। जिसके संगठन में रणनीतिक सोच विचार और दांव का इस कदर अभाव हो चुका है कि वो खुद ही रसातल की ओर बढ़ चली है। सो अब राहुल गांधी को अगर वाकई कांग्रेस को खड़ा करना है तो उन्हें अपने परिवार का ही इतिहास देखना होगा। नेहरु की स्वीकार्यता, संजय गांधी का अंदाज, इंदिरा के तेवर और राजीव गांधी की मासूमियत को अपने व्यक्तित्व में उतारना होगा। वरना गुजरात ने बीजेपी को सिर्फ संदेश दिया है, असल में आईना कांग्रेस को ही दिखाया है जिसमें अपना अक्स अगर राहुल गांधी पहचान गए तो 2024 में वो देश की सर्वोच्च कुर्सी के प्रबल दावेदार होंगे वरना राहुल के बाद वाली कांग्रेस का नक्शा क्या होगा, ये बताने की जरूरत नहीं है 

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