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बोफोर्स से टूजी तकः वीपी सिंह की 'राह' पर प्रधानमंत्री मोदी ?

आरुषि हत्याकांड, जेसिकालाल हत्याकांड जैसे अपराध के मामलों में कातिल कौन है, इसका पता आज तक नहीं चला। कहीं सबूत कम पड़े, कहीं गवाह, कहीं दलीलें कम पड़ीं, तो कहीं पुलिस की शुरुआती गलतियां भारी पड़ गई। ये असल में कुछ हाईप्रोफाइल केस हैं जो दुनिया के सामने आए, इन पर शोर शराबा हुआ और फिर नतीजा कुछ नहीं निकला। मगर सच ये है कि आज जेसिकालाल भी नहीं है, आरुषि भी नहीं है। जिन्दा और आजाद हैं, तो वो हत्यारे जिनका शातिर दिमाग, कानून ,पुलिस, अदालत सबको चकमा दे गया। और धीरे धीरे इनकी चर्चाएं हाशिए पर चली गईं। अब एक बार फिर देश में कुछ ऐसी ही चर्चा शुरु हो चुकी है। मगर इस दफे मसला हत्या के अपराध से नहीं आर्थिक अपराध से जुड़ा हुआ है। मगर सस्पेंस, थ्रिलर, उलटफेर, साजिश, सबका अंश है इस टूजी घोटाले में। देश में टूजी स्पेक्ट्रम का आवंटन 2001 की कीमत पर 2008 में कर दिया जाता है, मगर सबूतों के अभाव में अदालत को मानना पड़ता है कि कोई घोटाला नहीं हुआ। सांख्यिकी विशेषज्ञों की बात छोड़िए एक सामान्य आदमी भी ये आसानी से अंदाजा लगा सकता है कि आखिर क्या मजबूरी रही कि सात साल पुराने रेट पर बेशकीमती स्पेक्ट्रम बेच

कांग्रेस की ''सबसे बड़ी दुश्मन'' खुद कांग्रेस है?

गुजरात में बीजेपी की जीत को आंकड़ों के जरिए झुठलाने की कोशिश करने वालों जरा आंकड़े ठीक तरीके से पढ़ने और समझने चाहिए। ये मेरा सुझाव है कांग्रेस के समर्थकों को और कांग्रेस पार्टी को भी, जो गुजरात में 61 सीटों से 77 सीटों तक पहुंचने को अपनी बड़ी उपलब्धि मान रहे हैं। और बीजेपी की लगातार छठी जीत को उसकी नैतिक हार बता रहे हैं। ये बहुत कुछ वैसे ही है जैसे रोहित शर्मा ने पहले श्रीलंका के खिलाफ 264 रन बनाकर जीत दिलाई और बाद में हालिया वन डे सीरिज में सिर्फ 208 रन ही बना पाए, कुतर्कियों को ये बात समझनी होगी कि आंकड़ों के खेल के सहारे अपनी कमजोर छिपाने की कोशिश आखिरकार उनके लिए ही घातक साबित होगी। क्योंकि लोकतंत्र में विपक्ष का रहना और मजबूती के साथ रहना बेहद जरूरी है। लेकिन ये मजबूती आएगी कहां से, जब करारी शिकस्त में भी जीत के बहाने तलाशे जा रहे हैं। इसके जरिए विपक्ष खुद को कमजोर कर रहा है और उलटे बीजेपी को ताकत दे रहा है सवाल उठता है कि क्या बीजेपी की जीत तभी ऐतिहासिक मानी जाएगी जब बीजेपी के आगे सभी दलों का तेल निकल जाए। जैसा कि लोकसभा में हुआ जैसा कि यूपी विधानसभा चुनाव में हुआ। जहां विपक्

खुदा से भगवान बदल लें !

चलो अबकी दफा एक काम कर लें तुम्हारे खुदा से अपना भगवान बदल लें पचीसों साल का नासूर दिल से दूर रख दें तुम तीरथ करो तो हम भी अजान कर लें सियासत का असर हो उससे पहले नफरत का जहर हो उससे पहले निशाना हर शहर हो उससे पहले तुम गुल बनो, हम गुलफाम बन लें चलो अबकी दफा एक काम कर लें तुम्हारे खुदा से भगवान बदल लें ये बाबर और खिलजी या हो हाफिज ये मेरा जनेऊ, तेरी टोपी के जानिब भले बातें हों मजहबी या खालिस सियासत के असर को खाक कर दें बड़ा दिल कर लो संग संग आह भर लें चलो अबकी दफा एक काम कर लें तुम्हारे खुदा से भगवान बदल लें ये मौका हमने ही पैदा किया है खुदी का जश्न भी ज्यादा किया है ये उंगली हमने ही पकड़ाई उन्हें है जिन्होंने खुला इसका सौदा किया है अभी सबकी खता को माफ कर दें मुस्तकबिल के लिए इंसाफ कर दें चलो अबकी दफा एक काम कर लें तुम्हारे खुदा से भगवान बदल लें

अपनों से ''लुट गई'' कांग्रेस?

बरसों पहले एक गोविन्दा की फिल्म आई थी। जिसमें कादर खान और जानी लीवर भी थे। फिल्म में कादर खान एक कंपनी के मालिक और जानी लीवर उनके मैनेजर बने थे। इन दोनों का संवाद बेहद मजेदार था। जब भी कादर खान जानी लीवर से पूछते कि तुम मेरी ओर हो या फिर उसकी(गोविन्दा) ओर, तो जानी लीवर उंगली को दूसरी तरफ करके बोलते कि आपकी ओर। एक सीन ऐसा भी था जब जानी लीवर को सफाई देनी पड़ी और जानी ने उंगली दूसरी ओर करने पर सफाई दी कि वो दिल से अपने मालिक यानी कादर खान के साथ हैं ये तो रही फिल्म की बात, ये बात इसलिए याद आई क्योंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी में पिछले कुछ बरसों से इसी फिल्म की तर्ज पर खेल चल रहा है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल की सुप्रीम कोर्ट में दी गई दलील है जो उन्होंने बतौर सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील सुप्रीम कोर्ट में दी। सिब्बल साहब ने अदालत ने कह डाला कि अयोध्या मामले की सुनवाई 2019 से पहले नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसका फायदा सत्ताधारी पार्टी उठा सकती है। अब समझ में नहीं आता कि कपिल सिब्बल साहब जैसे काबिल वकील औऱ रणनीति के माहिर नेता अपनी इस दलील का मकसद औऱ मतलब नहीं समझ पा

'राहुल युग' में आएंगे कांग्रेस के 'अच्छे दिन?'

कांग्रेस में राहुल युग शुरु हो चुका है सो बदलती कांग्रेस के भविष्य को लेकर भी सवाल उठने लाजिमी है। ऐसे दौर में जब जनवरी 2013 में राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस अब तक 24 विधानसभा चुनाव हार चुकी है। ऐसे वक्त में जबकि कांग्रेस के पास कर्नाटक छोड़कर किसी बड़े राज्य की सत्ता नहीं बची है। राहुल का अध्यक्ष बनना कई मायनों में बेहद उलटफेर भरा फैसला साबित होने वाला है। 1885 में कांग्रेस पार्टी की स्थापना होने के बाद अब तक 43 साल तक पार्टी के अध्यक्ष पद पर नेहरू गांधी परिवार का वर्चस्व रहा है। 1928 में मोतीलाल नेहरू से शुरु हुआ सिलसिला अब भी जारी है। ये इत्तेफाक ही है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के जितने भी अध्यक्ष हुए वो सभी 'एक्सिडेंटली' ही हुए। 1984 में राजीव गांधी अध्यक्ष तब बने जब इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी। पीवी नरसिम्हा राव भी अध्यक्ष तब बने जब राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस को संभालने के लिए मजबूत हाथों की जरूरत थी और कई पुराने नेताओं ने अध्यक्ष पद लेने से इनकार कर दिया था। नरसिम्हा राव के बाद सीताराम केसरी भी विकल्पहीनता की स्थिति में ही अध

बीजेपी की जीत के पीछे विपक्ष की 'कड़ी मेहनत'?

यूपी के निकाय चुनावों ने एक बार फिर ये साबित कर दिया है कि हाल फिलहाल बीजेपी के सांगठनिक कौशल और तैयारी के आसपास भी कोई नहीं है। 16 नगर निगमों में से 14 पर कब्जा करके बीजेपी ने ना केवल बड़े शहरों में अपनी मजबूत पकड़ दिखाई है, बल्कि छोटे शहरों और कस्बों में भी अपनी दमदार धमक पेश की है। 198 नगर पालिकाओं में से 67 बीजेपी ने जीती तो नगर पंचायत की 438 सीटों में से बीजेपी के हिस्से 100 आईं। ये तब हुआ जब नगर पालिका की 43 सीटें निर्दलीयों के कब्जे में गईं, तो नगर पंचायत की 181 सीटों पर निर्दलीय विजयी घोषित हुए। यानी यूपी की कस्बाई आबादी ने अगर बीजेपी को नहीं चुना तो समाजवादी  पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस के मुकाबले उन्हें निर्दलीय ज्यादा अच्छे लगे। सवाल उठता है कि इन नतीजों का राजनीतिक संदेश क्या है? क्या वाकई विपक्ष की पार्टियां इस संदेश को गंभीरता से समझने की कोशिश कर रही हैं या फिर इन नतीजों पर भी कुतर्क पेश कर इन्हें झुठलाने की कोशिश शुरु हो गई है। मौजूदा हालात जो बनते दिख रहे हैं उसमें दूसरी बात ज्यादा सच साबित होती दिख रही है। क्योंकि बीजेपी की प्रचंड जीत के बाद से ही सोशल मीडिया पर ऐसी

गुजरात का 'जनेऊ' बनाम गोरखपुर का 'जनेऊ'

बात उन दिनों की है जब मैने गोरखपुर यूनिवर्सिटी में स्नातक प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था। वो दौर था जब यूपी सरकार ने छात्रसंघ चुनावों पर उससे पहले तीन सालों से रोक लगा रखी थी। उस दौर में गोऱखपुर यूनिवर्सिटी के छात्रावास का माहौल लगभग कॉन्वेंट स्कूलों के किसी छात्रावास की तरह ही होता था। वार्डन से लेकर यूनिवर्सटी के चपरासी तक हड़का देते थे। फिर यूपी में सत्ता बदली। और छात्रसंघ चुनावों का शोर माहौल पर तारी होना शुरु हुआ। अचानक छात्रावास के परिसर में बड़ी बड़ी लग्जरी गाड़ियों की आवाजाही बढ़ने लगी। झक्क सफेद कमीज और पैंट पहने अंकल की उम्र की चेहरे टहलते घूमते दिखने लगे जिनके पीछे मिनी गन लिए हुए कुछ मुस्टंडे भी होते थे। गन और गाड़ी के कॉकटेल ने नए छात्रों को मगन कर दिया सब अपने अपने हिस्से के फलाने और चिलाने भइया से सटने लगे। उसमें भी क्वालिस वाले भइया आकर छात्रावास में किसी लड़के के कमरे में बैठ गए तो फिर भौकाल का तो पूछिए मत। अगल बगल वाले बेबसी वाली निगाहों से देखते कि काश हमें भी ये सौभाग्य मिल जाता। वक्त बीतता गया और धीरे धीरे ऐसे भइया लोगों की तादाद बढ़ने लगी। क्लास कम होने लगे, गेट

बदजुबान होती सियासत का भविष्य?

दशकों पुरानी बात है जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 28 साल की उम्र में सांसद बनकर लोकसभा पहुंचे। उस दौर का किस्सा बड़ा मशहूर है जब पंडित नेहरू ने इस युवा लड़के का कश्मीर के मुद्दे पर भाषण सुना तो ना केवल अभिभूत हुए बल्कि प्रधानमंत्री बनने तक की   भविष्यवाणी कर डाली। एक दूसरा प्रसंग भी यदा कदा किताबों में मिल जाता है जब पंडित नेहरू ने अपने सहायक एमओ मथाई को सिर्फ इसलिए हटा दिया क्योंकि संसद में विपक्ष ने ये मांग की थी। भारतीय लोकतंत्र की यही खूबसूरती है , जहां आलोचक शत्रु नहीं होता बल्कि '' निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय '' से प्रेरित होता है। राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के बावजूद एक अघोषित साहचर्य , सम्मान और शिष्टाचार की परंपरा रही है। जिसकी बुनियाद पर भारत का लोकतंत्र दुनिया में सबसे बड़ा सबसे विशाल और सबसे ज्यादा आशावादी माना जाता है। खैर ये तो अतीत की बातें हैं , इन्हें दोहराने की जरूरत हालिया कुछ बयानों को देखने सुनने के बाद महसूस हो रही है। जहां खाल उधेड़ने , घर में घुसकर मारने जैसे बयान चर्चा में हैं। जहां पप्पू , फेंकू , चोर , जैसे शब्द चर्चा में हैं