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गुजरात का 'जनेऊ' बनाम गोरखपुर का 'जनेऊ'

बात उन दिनों की है जब मैने गोरखपुर यूनिवर्सिटी में स्नातक प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था। वो दौर था जब यूपी सरकार ने छात्रसंघ चुनावों पर उससे पहले तीन सालों से रोक लगा रखी थी। उस दौर में गोऱखपुर यूनिवर्सिटी के छात्रावास का माहौल लगभग कॉन्वेंट स्कूलों के किसी छात्रावास की तरह ही होता था। वार्डन से लेकर यूनिवर्सटी के चपरासी तक हड़का देते थे। फिर यूपी में सत्ता बदली। और छात्रसंघ चुनावों का शोर माहौल पर तारी होना शुरु हुआ। अचानक छात्रावास के परिसर में बड़ी बड़ी लग्जरी गाड़ियों की आवाजाही बढ़ने लगी। झक्क सफेद कमीज और पैंट पहने अंकल की उम्र की चेहरे टहलते घूमते दिखने लगे जिनके पीछे मिनी गन लिए हुए कुछ मुस्टंडे भी होते थे। गन और गाड़ी के कॉकटेल ने नए छात्रों को मगन कर दिया सब अपने अपने हिस्से के फलाने और चिलाने भइया से सटने लगे। उसमें भी क्वालिस वाले भइया आकर छात्रावास में किसी लड़के के कमरे में बैठ गए तो फिर भौकाल का तो पूछिए मत। अगल बगल वाले बेबसी वाली निगाहों से देखते कि काश हमें भी ये सौभाग्य मिल जाता। वक्त बीतता गया और धीरे धीरे ऐसे भइया लोगों की तादाद बढ़ने लगी। क्लास कम होने लगे, गेट ...

बदजुबान होती सियासत का भविष्य?

दशकों पुरानी बात है जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 28 साल की उम्र में सांसद बनकर लोकसभा पहुंचे। उस दौर का किस्सा बड़ा मशहूर है जब पंडित नेहरू ने इस युवा लड़के का कश्मीर के मुद्दे पर भाषण सुना तो ना केवल अभिभूत हुए बल्कि प्रधानमंत्री बनने तक की   भविष्यवाणी कर डाली। एक दूसरा प्रसंग भी यदा कदा किताबों में मिल जाता है जब पंडित नेहरू ने अपने सहायक एमओ मथाई को सिर्फ इसलिए हटा दिया क्योंकि संसद में विपक्ष ने ये मांग की थी। भारतीय लोकतंत्र की यही खूबसूरती है , जहां आलोचक शत्रु नहीं होता बल्कि '' निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय '' से प्रेरित होता है। राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के बावजूद एक अघोषित साहचर्य , सम्मान और शिष्टाचार की परंपरा रही है। जिसकी बुनियाद पर भारत का लोकतंत्र दुनिया में सबसे बड़ा सबसे विशाल और सबसे ज्यादा आशावादी माना जाता है। खैर ये तो अतीत की बातें हैं , इन्हें दोहराने की जरूरत हालिया कुछ बयानों को देखने सुनने के बाद महसूस हो रही है। जहां खाल उधेड़ने , घर में घुसकर मारने जैसे बयान चर्चा में हैं। जहां पप्पू , फेंकू , चोर , जैसे शब्द चर्चा में हैं...
16 अप्रैल 1853 को स्थापित हुई थी भारतीय रेल..150 सालों से एशिया के सबसे बड़े और दुनिया के दूसरे सबसे बड़े रेल नेटवर्क का तमगा है हमारी भारतीय रेल के सिर पर...हर रोज करीब पौने दो करोड़ लोग यात्रा करते हैं हमारी रेलवे से...इतने रिकॉर्ड...इतनी उपलब्धियां है हमारी रेलवे के खाते में कि गिनना मुश्किल है...मगर ये सिर्फ किताबी हैं...असल में भारतीय रेल अव्यवस्था और असुरक्षित सफर की कहानी बन चुकी है...रेलवे की हालत सुधारने की तमाम कोशिशें हुईं मगर बात बनी नही...ट्रेन हादसे और ट्रेनों में होने वाली वारदातें भी थमी नहीं है...सवाल उठता है कि आखिर बुनियादी सुविधाएं सुधारे बगैर सफर सुरक्षित कैसे होगा...आखिर यात्रियों के लिए कब तक रेलवे का सफर खौफनाक बनता रहेगा..हिन्दुस्तान में यातायात के लिए सबसे बड़ा साधन है रेलवे...हर दिन करोड़ों लोगों को अपनी मंजिल तक पहुंचाने वाली रेलवे नेटवर्क और स्ट्रैंथ के मामले में दुनिया में स्थान रखती है...मगर हिफाजत के सवाल पर रेलवे की सूरत ना कल बदली थी ना आज बदली है...खासकर रेल में सफर करने वाली महिलाओं की सुरक्षा का सवाल हमेशा ही उलझा रहा है...पश्चिमी चंपारण जिले के बे...

गैरों पे करम, अपनों पे सितमःदादा ये क्या कर डाला

जिससे राहत की उम्मीदें थीं उसी ने अपना पिटारा खोल दर्द बांटने की कवायद शुरु कर दी....किचेन का बजट गड़बड़ाता नज़र आया और आम आदमी की थालियां पहले से महंगी हो गईं.....सैलरी मिलने से पहले से चुकाया जाने वाला टैक्स पहले से ही रुला रहा था...लेकिन राहत के नाम पर आयकर छूट में महज 20 हज़ार की बढ़ोतरी....अभी पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ेंगी ये सोच कर कलेजा बैठा जा रहा था....घर के कामकाज से थकी-मादी पत्नी को कभी-कभार बाहर ले जाकर खिलाने के सिलसिले में भी अड़चनें आती दिखीं....अब होटलों में बतौर सर्विस टैक्स ज्यादा रकम जो चुकानी पड़ेगी.....टेलीफोन के बिलों में बढ़ोतरी होगी सो अलग.....फिक्र को धुंए में उड़ाना भी पहले से महंगा हो चला.....आम आदमी का दिल बैठा जा रहा था...जहां ग़रीबों की जेबें ढीली कर...कॉरपोरेट्स के खजाने भरने की साजिशें चल रही हो...उस देश का भगवान ही मालिक है....लेकिन तभी क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर ने देशभर के दुखियारों का दुख मिटा डाला...बजट से मुरझाए आम आदमी के चेहरे पर तब मुस्कान तैरने लगी जब सचिन ने अपना सौंवा शतक लगा दिया.....वित्तमंत्री के डंडे की चोट का असर जाता रहा........ले ले ...

आग से खेल रहे दिग्विजय सिंह !

देश इन दिनों ज्वालामुखी के मुंह पर बैठा हुआ है...दरअसल चुनावों के ठीक पहले धर्म को लेकर जिस तरह की सियासत शुरु हुई है उसका अंजाम सोचकर ही डर लग रहा है....मुस्लिम आरक्षण से शुरु हुई बयानबाजी अब चार साल पुराने बाटला एन्काउन्टर पर जाकर टिक गई है....एक ओर दिग्विजय सिंह हैं जो कि बार बार एन्काउन्टर पर सवाल उठाते रहे हैं..वहीं दूसरी ओर केन्द्र सरकार के नुमाइंदे इसे सही बता रहे हैं... हालात कुछ बड़े विचित्र और उलझाउ बन पड़े हैं....आजमगढ़ में राहुल गांधी के विरोध के बाद दिग्विजय सिंह ने जिस तरह से इस मुद्दे को तूल दिया उससे खुद उन्ही की पार्टी सांसत में आ गई है....क्योंकि बाटला एन्काउन्टर जिस वक्त हुआ उस वक्त ना केवल दिल्ली में बल्कि केन्द्र में भी उन्ही की पार्टी की सरकार थी...ऐसे में दिग्गी राजा के इस बयान के बाद सवाल सबसे पहले सरकार पर ही उठेंगे....सवाल ये नहीं कि बटला एन्काउन्टर गलत था या सही बल्कि सवाल ये है कि इस बहाने जो राजनीति हो रही है वो काफी खतरनाक है....इस बात का अंदाजा या तो दिग्विजय सिंह को नहीं है या फिर अगर है भी तो वो आग से खेलने की कोशिश कर रहे हैं....खुद अपनी ...

चौराहे पर कौन अन्ना या टीम अन्ना ?

पिछले साल 16 अगस्त का दिन.....हाथों में झंडे सर पर अन्ना टोपी....दिल्ली के रामलीला मैदान में दस दिनों तक मेले का माहौल....मैदान में जितने लोग भी मौजूद थे या फिर जो भी आ जा रहे थे...सबकी जुबान पर बस एक ही स्वर अन्ना अऩ्ना....जितनी भीड़ उसमें नब्बे प्रतिशत संख्या युवाओं की....देश जूनून में लिपटा था...क्या गांव क्या शहर क्या कस्बे सब के सब भ्रष्टाचार के खिलाफ महायुद्ध में अपना योगदान देने के लिए चले आ रहे थे....एक ऐसा दृश्य जिसे टीवी पर देखने से ज्यादा सभी लोग महसूस कर रहे थे....जो भी रामलीला मैदान या देश के किसी भी कोने में भी इस आन्दोलन का हिस्सा बना उसे ऐसा ही लगता था कि बस अन्ना जी यहां से अनशन जब तोड़ेंगे तब तक भ्रष्टाचार का अन्त हो जाएगा..नहीं भी होगा तो जनलोकपाल के रुप में एक ऐसा चाबुक कानून बन जाएगा जिसके डर से सभी भ्रष्टाचारी मैदान छोड़ भाग जाएंगे.... सवाल ये नहीं कि ये आन्दोलन कितना सफल और कितना बड़ा था...सवाल सबसे बड़ा ये है कि इस आन्दोलन के साथ लोगों की भावनाएं जुड़ गई थीं....लेकिन फिर दूसरे ही सीन में टीम अन्ना के अहम सदस्य प्रशान्त भ...