बदजुबान होती सियासत का भविष्य?


दशकों पुरानी बात है जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 28 साल की उम्र में सांसद बनकर लोकसभा पहुंचे। उस दौर का किस्सा बड़ा मशहूर है जब पंडित नेहरू ने इस युवा लड़के का कश्मीर के मुद्दे पर भाषण सुना तो ना केवल अभिभूत हुए बल्कि प्रधानमंत्री बनने तक की  भविष्यवाणी कर डाली। एक दूसरा प्रसंग भी यदा कदा किताबों में मिल जाता है जब पंडित नेहरू ने अपने सहायक एमओ मथाई को सिर्फ इसलिए हटा दिया क्योंकि संसद में विपक्ष ने ये मांग की थी। भारतीय लोकतंत्र की यही खूबसूरती है, जहां आलोचक शत्रु नहीं होता बल्कि ''निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय'' से प्रेरित होता है। राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के बावजूद एक अघोषित साहचर्य, सम्मान और शिष्टाचार की परंपरा रही है। जिसकी बुनियाद पर भारत का लोकतंत्र दुनिया में सबसे बड़ा सबसे विशाल और सबसे ज्यादा आशावादी माना जाता है।
खैर ये तो अतीत की बातें हैं, इन्हें दोहराने की जरूरत हालिया कुछ बयानों को देखने सुनने के बाद महसूस हो रही है। जहां खाल उधेड़ने, घर में घुसकर मारने जैसे बयान चर्चा में हैं। जहां पप्पू, फेंकू, चोर, जैसे शब्द चर्चा में हैं। जहां जूते मारे जाते हैं, जहां कालिख पोती जाती है, जहां संसद की बहसों में भी जुबान पर काबू नहीं रहता। जहां सर्वदलीय बैठकों तक में भौंहे तनी रहती हैं। जहां निजी आयोजनों तक को सियासी चश्मे से देखा जाने लगा है। जहां राजनीति का मतलब दुश्मनी सरीखी होने लगी है। सबसे ज्यादा हैरानी तो तब होती है जब ऐसी बयानबाजी का हिस्सा वो लोग भी बन रहे हैं जिन्होंने शिष्टाचार से प्रेरित राजनीति को जिया है और वो लोग भी बन रहे हैं जिन्होंने राजनीति का ककहरा सीखना शुरु किया है। ऐसे में माहौल में लोकतंत्र की वो खूबसूरती कहीं गुम सी होने लगी है जिसमें राजनीतिक विरोध का मतलब निजी विरोध कभी नहीं होता था। सवाल उठता है कि आखिर ये रोग कैसे लग गया भारतीय राजनीति को? क्या वाकई अब कोई गुंजाइश नहीं बची है? क्या आगे का हाल इससे भी ज्यादा बदतर होने वाला है?
दरअसल राजनीति के व्यवसायीकरण का ये वो पहलू है जो हमारे लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित होने वाला है। जिसका असर अलग अलग जगहों पर दिखने भी लगा है। किसी जमाने में कॉर्टून बनाने पर तारीफ मिलती थी, आजकल जेल हो रही है। किसी जमाने में चुटीली और व्यंग्य से भरी टिप्पणियों पर वाहवाही मिलती थी आजकल गालियां मिलती हैं। जाहिर है बहुत कुछ बदल रहा है हमारे लोकतंत्र में, और सबसे दुखद पहलू ये है कि ये बदलाव नकारात्मक है। इसमें बदले की भावना है, एक दूसरे को मिटाने की हवस है, सिर्फ खुद को सही मानने का खौफनाक भ्रम है और आलोचक को शब्दों से नहीं दंड देकर सबक सिखाने का भयावह प्रचलन है। संसद से सड़क तक एक ही जैसा हाल है, आक्रामक राजनीति की परिभाषा इस कदर बदल चुकी है कि भविष्य का अंधकार अभी से साफ साफ दिख रहा है।
खैर इस विषय पर विमर्श की जरूरत सबसे ज्यादा इसलिए भी है क्योंकि राजनीति की नई पीढ़ी ने इस अचानक से पैदा हुए बवंडर में खुद को जोड़ लिया है। हालांकि इसमें राहत की बात ये है कि कुछ नेता अभी भी जड़ों और परंपराओं को बचाने की सतही ही सही लेकिन कोशिश जरूर कर रहे हैं। बीते दिनों राहुल गांधी की ओर से पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रधानमंत्री पर निजी हमला ना करने का निर्देश देना एक सुखद अनुभूति है। तो वहीं यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का एक पत्रकार और कलाकार शशिवर्धन शाक्य को सम्मानित करना भी एक अच्छा संकेत है। जबकि शशिवर्धन, अखिलेश यादव, मुलायम सिंह और शिवपाल यादव की मिमिक्री करते हैं और कभी कभी मजाक भी उड़ा देते हैं मगर कला का सम्मान कर अखिलेश यादव ने एक मिसाल पेश की है। मगर ये सिर्फ एक पहलू है, सिर्फ एक सांकेतिक आचरण भर है जिसकी तारीफ तो बनती है। मगर राजनीतिक शत्रुता का अध्याय खत्म कर स्वस्थ लोकतांत्रिक सहजता को पैदा करने की दिशा में ये काफी नहीं है। क्योंकि दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी हैं। जिन्हें खुद का मजाक उड़ाया जाना बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं, लालू यादव के पुत्र तेजप्रताप यादव भी हैं जिन्हें राजनीति में सड़कछाप भाषा के इस्तेमाल से भी परहेज नहीं। ये दो तरह की प्रवृत्तियां खतरनाक तरीके से उभर रही हैं जिसमें एक ओर तो कुछ सुनना गवारा नहीं और दूसरा औरों को कुछ भी सुनाने में सीमा रेखा लांघने की हर मुमकिन कोशिश। इस पर पूरी राजनीतिक जमात को विचार करना होगा। कांग्रेस हो या बीजेपी, लेफ्ट हो या समाजवादी पार्टी या फिर दूसरे क्षेत्रीय दल, सबको समझना होगा कि सत्ता एक अस्थाई स्थिति है। जो जनता गालियों पर तालियां बजाती है वो वोट भी देगी इसकी गारंटी नहीं है। क्योंकि सहजता का सम्मान हमेशा होता है, बदजुबानी सरगना बना सकती है नेता नहीं।

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